Sunday 12 July 2015

जातिगत जनगणना का ‪‎रहस्य‬

जातिगत जनगणना का ‪#‎रहस्य‬ !!!
वाकई गजब का विविधता वाला देश है ‪#‎भारत‬ वर्ष जिसमे कि 46 लाख जातियां, उपजातियां, गोत्र केवल सनातन में ही हैं। जातिगत जनगणना में इस तथ्य के बाहर आने के बाद जो रहस्य उजागर हुआ है वह भारत की उस केन्द्रीय शक्ति को प्रतिबिम्बित करता है जिसे ‪#‎सनातन‬ कहते हैं।

 पूरी दुनिया में कोई ऐसा दूसरा समुदाय नहीं है जो इस कदर विभाजित होने के बाद एक सूत्र में बन्धा हुआ हो। निश्चित रूप से इन बिखरे हुए और विभाजित लोगों को यदि कोई चीज एक धागे में पिरोये हुए है तो वह सनातन संस्कृति ही है और यही वजह है कि लोकतन्त्र का मूल सिद्धान्त 'मत और विचार विभिन्नता' इस देश की शिराओं में रक्त की तरह दौड़ता है। केन्द्र सरकार ने अभी ये जातिगत आंकड़े जारी नहीं किये हैं क्योंकि राज्य सरकारों को जनगणना में प्राप्त जातिगत समूहों को समुच्चबद्ध करना है और उन्हें वापस केन्द्र के पास भेजना है लेकिन यह सवाल उठ सकता है कि 21वीं सदी के भारत को इस प्रकार की जनगणना की क्या जरूरत थी ???

याद है कि 2011 में केन्द्र की मनमोहन सरकार के रहते कुछ क्षेत्रीय दलों खासकर बीजेपी, समाजवादी पार्टी, जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल आदि ने लोकसभा में तूफान खड़ा कर दिया था और सरकार से कहा था कि भारत में 1936 के बाद से जातिगत गणना नहीं हुई है जबकि 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से जातिगत पहचान जरूरी हो गई है क्योंकि पिछड़े वर्ग की पहचान जातियों के आधार पर ही होती है। 

इस मुद्दे पर इन दलों के सांसदों ने लोकसभा की कार्यवाही में कई बार व्यवधान भी पैदा किया था। गौर से देखा जाये तो जाति मूलक राजनीति के लिए यह जनगणना इन दलों के नेताओं ने जरूरी खुराक समझी थी मगर 46 लाख जातियों व उपजातियों और गोत्रों में इन्हीं दलों के नेताओं के दिमाग को घुमाने की क्षमता है !!! 
इसका मैं एक उदाहरण देता हूं। जब तथाकथित बिहारी वाजपेयी 1999 में 13 दिन और 13 महीने के बाद तीसरी बार प्रधानमन्त्री बने तो उन्हें ब्राह्मण समाज की तरफ से समारोह की अध्यक्षता करने का निमन्त्रण मिला। वाजपेयी ने उसे अस्वीकार कर दिया। 
संसद में ऐसे ही किसी मुद्दे पर चल रही बहस में भाग लेते हुए वाजपेयी ने इस घटना का जिक्र करते हुए कहा कि अगर कल को मुझे 'कान्यकुब्ज ब्राह्मण' समाज निमन्त्रित करता है तो मैं क्या करूंगा ??? वाजपेयी मूल रूप से कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं। इन कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है कि 'नौ कन्नौजी-दस चूल्हे।' 
इसी प्रकार एक बार वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी केन्द्र में वित्तमन्त्री रहते 'कान्यकुब्ज सभा' की ओर से निमन्त्रण पत्र मिला। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मुखर्जी भी मूल रूप से कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। प. बंगाल के जितने भी पांच 'अर्जी' या उपाध्याय अर्थात मुखर्जी, चटर्जी, बनर्जी आदि ब्राह्मण हैं वे सभी कान्यकुब्ज हैं जो सदियों पहले कानपुर के आसपास के इलाके से उस समय बंगाल गये थे जब इस राज्य में मुस्लिम राज के चलते सनातनो के पूजा-पाठ आदि कार्यों के लिए ब्राह्मïण बचे ही नहीं थे। इनमें भी 'बिसवे' का अलग टंटा होता है। मुखर्जी ने भी ससम्मान निमन्त्रण को लौटा दिया। 
अब इस जाति जनगणना के रहस्य की घोषणा करने वाले वित्तमन्त्री अरुण जेटली को लीजिये। वह 'सारस्वत' ब्राह्मण हैं। सारस्वत पंजाब के विद्वजनों के सिरमौर माने जाते हैं और आर्यों के कुल पुरोहित होने का विशिष्ट दर्जा भी इनके पास है और महाराष्ट्र व गोवा इलाके में भी सारस्वत ब्राह्मïण हैं किन्तु इनके गोत्र अलग होते हैं। 
अब यादवों को लीजिये। बिहार औऱ उत्तर प्रदेश के यादव कई गोत्रों में बंटे हुए हैं मगर गुजरात के अहीरों से इनका मेल नहीं बैठता और दक्षिण भारत के यादव, जो 'नन्द गोपाल' कहलाये जाते हैं, स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। 
इसी प्रकार क्षत्रियों में चन्द्रवंशी से लेकर सूर्यवंशी राजपूत और ठाकुरों के बीच सैकड़ों की संख्या में गोत्रादि विभिन्नताएं हैं। उत्तर और दक्षिण के इलाकों में इनकी अलग-अलग पहचान है मगर सबसे ज्यादा मजेदार मामला पंजाब के खत्रियों का है। इनमें सिख भी होते हैं और हिन्दू भी। 
पंजाबी भी होते हैं और यूपी वाले भी और दक्षिण भारत में ये 'एसएसके' अर्थात 'सूर्यवंशी सहस्त्रबाहु क्षत्रिय' कहलाये जाते हैं मगर इनके उपनाम पुजारी, राव आदि होते हैं। ये स्वयं को ब्राह्मण तुल्य समझते हैं और पंजाब से लेकर अन्य सभी प्रदेशों में सारस्वत ब्राह्मणों के साथ रोटी-बेटी का लेन-देन करते हैं। 
उत्तर-पूर्वी भारत तक में सारस्वत ब्राह्मण फैले हुए हैं जिनमें प्रमुख 'गोस्वामी' हैं। इसी प्रकार वैश्यों में जैन मतावलम्बियों से लेकर हिन्दुओं के बीच गोत्रों का जाल फैला हुआ है। 
दलितों में भी भेद पर भेद हैं जिसका उदाहरण बिहार है जहां दलित और महादलित का वर्गीकरण किया गया है। दक्षिण भारत विशेषकर तमिलनाडु की संस्कृति के जातिगत तार हमें सीधे रामायण काल से जोड़ते हैं और आचार्य चतुर सेन शास्त्री की पुस्तक 'वयं रक्षाम:' का तार्किकपूर्ण तरीके से अध्ययन करने को उकसाती है मगर हमें ध्यान रखना पड़ेगा कि लंकापति रावण ब्राह्मण था और 'पौलत्स्य' ऋषि का पौत्र था और 'सप्त द्वीप पति' अर्थात सात द्वीपों का अधिपति था। 
अत: भारत की जातिगत गणना से वोट बैंक को पक्का करने की राजनीति अंग्रेजों की 1936 में की गई जनगणना के आधार पर तो इस वजह से हो गई क्योंकि उसका लक्ष्य भारत को पूरी आजादी देने से पहले इसे जातियों के कबीले बना कर खंड-खंड करके बांटते हुए भारत की एकात्म शक्ति को भीतर से तोडऩा था। 
यह काम मोटे तौर पर उन्होंने भारत को धर्म के नाम पर तोड़कर कर भी किया मगर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आजाद भारत में अंग्रेजों के सपने को पूरा करने के बीज को पूरी तरह ख़त्म करने का बिज बोया l 
देखिये इस मुल्क की किस्मत कि राम मनोहर लोहिया जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहा और कहता रहा कि भारत में विकास और सामाजिक न्याय का रास्ता केवल और केवल 'जाति तोड़ो' के द्वार से ही होकर जायेगा मगर क्या कयामत है कि उन्हीं के तथाकथित चेले आज 'जाति बोलो' की अलख जगाने में सबसे आगे चल रहे और चलना चाहते हैं और अपनी अपनी जातियों को गर्व से‪#‎ओबीसी‬ बनाने पर तुले हुए है !!!

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विषयगत टिपण्णी करने पर आपका बहुत बहुत आभार साधुवाद l
भवर सिंह राठौड