Friday 3 April 2015

दारु शराब पीना और मांस खाना पाप या पुण्य कार्य !!

 मैं जब किसी को बताता हूँ कि मैं क्षत्रिय हूँ लेकिन मांस-मदिरा का उपयोग प्रयोग नहीं करता तो उन्हें बड़ा आश्चर्य होता है तथा उन्हें ये झूठ लगता है और कहते है की आज आप और आपका समाज क्या,  ऐसा कोई समाज नहीं बचा जो इस बीमारी से अछूता रहता हो ???

हमारे क्षत्रिय समाज के बारे में ये धारणा है की राजपूत है तो मांस और मदिरा जरूर प्रयोग करता होगा ? जबकि शाकाहार और मासाहार को अपनाना सबका निजी मामला होता है लेकिन इसमें हम साक्ष्य दे सकते है हमारे पूर्वजो का की वो भी इन सबका प्रयोग नहीं करते थे !!!  

ऐसी धारणाओ को हम ही बदल सकते हैं, केसे ?? समय रहते ही इन बुराइयों और अपने समाज में व्याप्त अन्य कु रीतियों से मुह मोड़कर !! 
हमारे कई साथी कुतर्क देते हैं कि हमारे पूर्वज राजा-महाराजा भी मांस मदिरा का प्रयोग करते थे तो हमें भी करना चाहिए बिना यह जानने कि चेष्टा किये बगैर की उस समय इन वस्तुओ का प्रयोग अगर किया भी जाता था तो क्यूं किया जाता था...???

हमारे पूर्वज अनवरत युद्धों में रत रहते थे उन्हें शारीरिक निरोगता
की ज्यादा जरूरत थी और केवल उस समय दारु (मदिरा) का प्रयोग आज की डीटोल की तरह अपने घाव पर लगाने के लिए दवा के रूप में किया जाता था ! आज की तरह पिने और पिलाने में इसका उपयोग नहीं होता था !!! इस ग़लतफ़हमी में आकर ही अधिकाँश क्षत्रिय समाज अपनी जमीन जायदाद तक को बेच बेच कर जमींदार से जमींदोज हो चूके है !! आज हमें किसी क्षत्रु राज्य पर चढ़ाई नहीं करनी इसलिए हमें शारीरिक बल से ज्यादा मानसिक बल व  निरोगता की ज्यादा जरूरत है जिसकी सहायता से हम समाज में उचित सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकते हैं !!

जो पथभ्रष्ट साथी शराब को राजपूती शान शौकत समझते हैं उन्हें लगता है कि मदिरा और मांस का प्रयोग करके ही शक्तिशाली बना जा सकता है तथा वो बड़े गर्व से सामाजिक मंचों पर भी अपने मदिरापान करते हुए चित्र पोस्ट करते हैं ,वे महाराणा स्वरूप सिँह जी मेवाड के उस चेतावनी राजाज्ञा पत्र को भी अवस्य पढ़ें जिसमे महाराणा ने शराब को गौहत्या के बराबर पाप घोषित किया है ।





इतिहास के झरोखे से। सही (हस्ताक्षरित)

 स्वास्ति श्री महाराजाधिराज महाराणा श्री स्वरूप सिंह जी के आदेशानुसार, श्रीजी (एकलिंग जी) की आज्ञा से पूरे शिशोधा मतलब समस्त शिशोदिया को दारू पीने की मनाही थी और महाराणा श्री अमर सिंह जी (छोटे मतलब द्वित्तीय) ने जब पीना शुरू किया था तब सभी पीने लगे । इसलिए इस पीने से कुफायदा अर्थात नुकसान ही हुआ है और धर्मशास्त्र की मर्यादा में भी दारू पीने को महापाप ही माना गया है ! इसीलिए अब संवत् 1902 , कार्तिक सुदी 9 को कैलाशपुरी पधार कर शराब एवं मद को छोड़ने का संकल्प श्री परमेश्वर के चरणविन्दों में किया है । इसलिए अब समस्त शिशोदिया कुल में इसी क्षण से यदि कोई शराब पियेगा तो , उन लोगों को श्रीजी (एकलिंग जी) की सौगंध है और उन्हें चित्तोड़ हत्या अर्थात देशद्रोह ,और कोटि कोटि गौ मारने की हत्या का अपराध समझा जायेगा । हमारे वंश में फिर दारू पीने का विचार या दूसरे पीने वाले शिशोदिया को यदि सजा नही दी गयी तो ऊपर वर्णित (चित्तोड हत्या और कोटि कोटि गौ हत्या ) की सौगंध है । सभी को श्रीजी का अन्न जल (अर्थात एकलिंग जी के भोग लगे भोजन) को पाने का आदेश दिया जाता है ।

अब तक बचपन से शक्तावत क्षत्रियों को महासती द्वारा शराब की मनाही की बात सुनी थी !! अब यह पुराना राज्यादेश ही नहीं श्रीजी की इच्छा का प्रमाण भी ले मिल गया है और यह भी सही है कि जिस भी सिसोदिया या अन्य किसी भी क्षत्रिय ने शराब का सेवन किया उसका भारी नुकसान के साथ वह जड़ मूल से ख़त्म ही हुआ है !!!

जय श्री एकलिंग नाथ
जय श्री चारभुजा नाथ
 

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भवर सिंह राठौड